… विदा लाडो
तुम्हे कभी देखा नहीं गुड़िया!
तुमसे कभी मिला नहीं लाडो!
मेरी अपनी दुनिया की अनोखी उलझनों में
और तुम्हारी ख़ुद की थपकियों से गढ़ रही
तुम्हारी अपनी दुनिया की
छोटी-छोटी सी घटत-बढ़त में,
कभी वक़्त लाया ही नहीं हमें आमने-सामने।
फिर ये क्या है कि नामर्द हथेलियों में पिसीं
तुम्हारी घुटी-घटी चीख़ें, मेरी थकी नींदों में
हाहाकार मचाकर मुझे सोने नहीं देतीं?
फिर ये क्या है कि तुम्हारा “मैं जीना चाहतीं हूँ माँ” का
अनसुना विहाग मेरे अन्दर के पिता को धिक्कारता रहता है?
तुमसे माफ़ी नहीं माँगता चिरैया!
बस हो सके तो अगले जनम
मेरी बिटिया बन कर मेरे आँगन में हुलसना बच्चे!
विधाता से छीन कर अपना सारा पुरुषार्थ लगा दूंगा
तुम्हे भरोसा दिलाने में कि
“मर्द” होने से पहले “इंसान” होता है असली “पुरुष”!
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